Wednesday 21 March 2012

साहेब, गुलाम या गैंगस्टर पर बीबी वहीं की वहीं


तिग्मांशु धूलिया की हाल ही में आई फिल्म 'साहेबबीबी और गैंगस्टरने एक बार फिर साबित किया है कि मुम्बईया फिल्मों में स्त्रियों के चरित्रों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है. स्त्रियों को गुलाम बनाये रखने कि सोच अभी भी हिंदी सिनेमा में मौजूद है. इस जैसी फिल्मों में ऊपर-ऊपर जरुर दीखता है कि स्त्री बोल्ड या आज़ाद हुयी है मगर ध्यान से देखे तो सच कुछ और ही होता है. जिस तरह इस फिल्म में तिग्मांशु ने छोटी रानी का चरित्र गढा है वह गुरुदत्त के 'साहेबबीबी और गुलामसे बुनियादी रूप में कतई अलग नहीं है. वहाँ जिस तरह सामंतवादी सोच वाले पति के लिए छोटी रानी किसी भी हद तक गुज़रती है यहाँ भी छोटी रानी(माही) थोड़ा विचलन के बावजूद साहेब(जिम्मी) को ही कबूल करती है. साहेब दूसरी स्त्री के पास जाता रहता है पर छोटी रानी विछिप्त-सी देखती रहती है. और जब वो ड्राईवर (हुड्डा) से संपर्क बनाती है तो चोरी-छिपे. न तो वह साहेब को छोड़ने कि हिम्मत जुटा पाती है और न ही अपने सम्बन्ध को स्वीकार करने की. छोटी रानी अपने सम्बन्ध चहारदीवारी तक ही मानती है . प्रेमी को स्वीकार करने कई बजाय  गुरुदत्त की छोटी रानी की तरह साहेब के पैरों की धूल ही चुनती हैचाहे साहेब उसे प्यार करे या न करे. उसे भय होता है उसी समाज का जो उसे वैसे का वैसा ही बनाये रखना चाहता है. इस तथाकथित सभ्य समाज के पुराने ढांचे को तोड़ने कई हिमाकत छोटी रानी नहीं कर पाती है. सामानांतर सिनेमा आंदोलन ने स्त्री के इस छवि को तोड़ने की और इश्किया जैसी कुछेक फिल्मों ने उसे आगे बढ़ाने की कोशिश जरुर  की मगर मुख्य धारा की लगभग सभी फिल्मों ने सामंतवादी रुख ही दिखाया. ओमकारा में स्त्री अपने पिता की खिलाफत कर प्रेमी को जरुर पाती है पर प्रेमी द्वारा उसी सामंतवादी सोच का शिकार होती है. देव-डी की उन्मुक्त दिखनेवाली बोल्ड पारो भी ऐसे ही हार जाती है. गुलाल या राजनीति की स्त्रियाँ  मर्दों के खेल का माध्यम बनती हैं.सात खून माफ की स्त्री पतियों से छुटकारा पाने के बावजूद ईश्वर की शरण में जाती हैआखिर उसे ईश्वर की शरण में क्यों जाना पड़े ? तनु वेड्स मनु की आज़ाद पंछी आखिर में उसी आदर्श शादी के पिंजरे में लौटती है जिससे वो छुटकारा पाना चाहती थी. मेरे ब्रदर की दुल्हन में दुल्हन अपने प्रेमी को पाने के लिए उन्ही हथकंडों का इस्तेमाल करती है जिसे ये समाज मान्यता देता है. वह खुल्लमखुल्ला प्यार नही पाती बल्कि उन्ही ढांचों को अपनाती है जो उन्हें खुल्लमखुल्ला प्यार नही करने देते हैं. फिल्मों में स्त्रियों को छोटे कपड़े आज़ादी के नाम पर जरुर  पहनाये जा रहे हैं मगर ये सब मर्दों का ही खेल है. फिल्म हो या समाज स्त्रियों को वस्तु की तरह ही ट्रीट किया जा रहा है जिसे बदला जाना चाहिए. फिल्मों में स्त्री छोटे कपड़े पहने या बड़े ये जरुरी नहीं बल्कि इनके चरित्रों में बुनियादी परिवर्तन करने की जरुरत है. कब स्त्री फिल्मों में अपने पूरी तरह से स्वतंत्र अस्तित्व को देख पायेगीकुलमिलाकर आजकल कुछ  फिल्मों में स्त्री को ऊपर से स्वतंत्र या बोल्ड जरुर दिखाया जा रहा हो मगर सच्चाई कुछ और ही है.

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