अगर मैं यह कहूं कि भगाणा की हाल की घटना और वहां के पीड़ित दलितों का मामला महज सामाजिक नहीं है, बल्कि इसके सबसे अधिक राजनैतिक निहितार्थ हैं. तो शायद आपको अजीब भी लग सकता है. दलितों पर ताकतवर जातियों की ओर से हमेशा अत्याचार होते आए हैं, और यह सामाजिक ढांचे और उसकी बजबजाती गंदगी का मामला तो रहता ही है. लेकिन हरियाणा के हिसार के भगाणा गांव की घटना के व्यापक राजनैतिक जुड़ाव है. इस घटना के विरोध में भी हो रहे संघर्ष की राजनैतिक वजह है और इसकी जरूरत भी है.
जंतर-मंतर
पर भगाणा की बलात्कार पीड़िताएं
पिछले
23 मार्च को भगाना गांव की दो नाबालिग
समेत चार दलित लड़कियों का अपहरण गांव के ही जाट युवकों ने कर लिया और बलात्कार
किया था. इन पीडि़ताओं में दो नाबालिगों की उम्र 15 वर्ष और 17 वर्ष है तो दोनों बालिगों की उम्र 18 वर्ष है. घटना के बाद इंसाफ और
पुर्नवास की मांग को लेकर पीडि़ताएं अपने परिजनों और गांव के करीब 90 दलित परिवारों के साथ दिल्ली के जंतर
मंतर पर धरना दे रही हैं.
पीडि़ताओं
का आरोप है कि 23 मार्च की रात करीब 8 बजे जब वे शौच के लिए पास के खेतों
में गई थीं तो पांच युवकों ने उन्हें जबरन चारपहिया गाड़ी में बिठा लिया और कुछ
सूंघा कर बेहोश कर दिया. उन्हें होश आया तो उन्होंने खुद को अगले दिन पंजाब के
भटिंडा रेलवे स्टेशन के किनारे पड़ा पाया. खुद की हालत से उन्हें पता चला कि उनके
साथ रात में बलात्कार किया गया है.
लेकिन
कहानी इतनी भर नहीं है. 17 वर्षीय बलात्कार की शिकार लड़की के
पिता कहते हैं, ''इसी वर्ष जनवरी में गांव के सरपंच
राकेश कुमार पंघाल ने उन्हें मारा-पीटा और बुरा अंजाम भुगतने की धमकी भी दी थी. वे
राकेश के खेतों में ही काम करते थे. वे कहते हैं, मैं रात में खेतों में पानी देने के बाद थोड़ी देर के लिए सो गया था
तो इससे नाराज होकर राकेश ने मारपीट की थी.” उनका कहना है कि एसपी तक से गुहार
लगाने के बाद भी कोई मामला दर्ज नहीं हुआ और ना ही कोई कार्रवाई की गई.
और
इस तरह कहानी महज बलात्कार तक सीमित नहीं रहती. यह हरियाणा में दलितों के लगातर
जारी उत्पीडऩ की कहानी बन जाती है.
हिसार
मुख्यालय और बलात्कार पीड़ित प्रेतात्माएं
हरियाणा
के हिसार के जिला मुख्यालय पहुंचते ही मुझे अहसास हुआ कि आप किसी भी शहर के कोर्ट,
थाने या अन्य प्रशासनिक मुख्यालय चले जाइए आपको बलात्कार पीड़िताएं प्रेतात्माओं
की तरह मंडराती मिल जाएंगी. जी हां, प्रशासनिक उदासीनता और लापरवाही से तंग, न्याय
की आस लिए चक्कर काटती असंतुष्ट प्रेतात्माओं की तरह ही. और शायद प्रशासनिक
अधिकारी भी उन्हें प्रेतात्माओं या अन्य जगह की प्राणी टाइप ही देखते हैं, जिनके
साए से वे दूर रहना चाहते हैं. हिसार जिला मुख्यालय जहां डिप्टी कमिनश्नर और एसपी
ऑफिस से लेकर कोर्ट तक मौजूद हैं, वहां पहुंचते ही मेरी मुलाकात डाबड़ा गांव की उस
17 वर्षीय दलित लड़की से हुई जिसके साथ 2012 में जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार
किया था. इस घटना के बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी. वह लड़की उस कोर्ट में
एक 10 वर्षीय बच्ची को लेकर आई थी, जिसके साथ किसी अधेड़ शख्स ने बलात्कार किया
था. इसी तरह वह अपनी ही तरह दरिंदगी की शिकार लड़कियों के लिए आवाज उठाती है और
भगाना गांव में बलात्कार शिकार लड़कियों के आंदोलन में उतरी हुई है.
और वहीं थोड़ी देर
में मुझे एक और बलात्कार शिकार युवती मिल जाती है जिसके साथ एक जाट युवक ने
बलात्कार किया था लेकिन अब तक उसे सजा न मिल पाई है और इसकी वजह यह थी कि उस आरोपी
युवक का मामा एक जज है. जाहिर है अपने रूतबे से उसने तमाम तिकड़मों से युवती को ही
टॉर्चर कराया. यहां तक कि पुलिस ने इस युवती को गिरफ्तार कर बुरी तरह से टॉर्चर
किया था जिसकी वजह से वह विक्षिप्त-सी हो गई थी. अब वह इंसाफ के लिए अब तक लड़ तो
रही है लेकिन उसके चेहरे पर अदालतों-प्रशासनिक ढांचों के प्रति वितृष्णा साफ नजर आ
रही थी. हां, यह ध्यान देने वाली बात जरूर थी कि इन दोनों लड़कियों ने हार नहीं
मानी और न ही किसी तरह की झिझक के भाव के साथ दिखाई पड़ी, जैसा कि अमूमन पीड़िताओं
को प्रदर्शित करने की कोशिश की जाती है. साफ कहूं तो बलात्कार पीड़ितों को लाचार
या ‘मुंह न दिखाने लायक’ मानने
वाले समाज के ठेकेदारों के मुंह पर वे कड़े तमाचे की तरह मुझे दिखाई पड़ीं.
मुख्यालय की छत के
नीचे ही भगाणा गांव के वे दलित भी मिल गए जो दो साल से वहां धरने पर बैठे हुए हैं.
भगाना गांव 2012 में सुर्खियों में आ गया था जब
सामुदायिक जमीन को लेकर यहां विवाद हुआ था. दलितों का आरोप है कि उन्होंने ग्राम
पंचायत की जमीन पर बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर की मूर्ति लगाने और खेल के मैदान पर
पट्टे देने की मांग के खिलाफ जाटों ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया. उनकी धमकियों से
तंग आकर 136 दलित परिवारों ने हिसार के मिनी
सचिवालय में धरने पर बैठ गए और दिल्ली तक पैदल मार्च किया था. लेकिन उन्हें मिला
कुछ नहीं.
हिसार
के मिनी सचिवालय पर ये दलित परिवार आज भी अपने दिनचर्या की चीजों के साथ धरने पर
बैठे हुए हैं. वहां धरने पर बैठे भगाना के 32
वर्षीय सतीश काजल बताते हैं,
''यहां अब भी हमें
धरना देना पड़ रहा है. न तो प्रशासन और ना ही सरकार ने हमारी बात सुनी है.” उनके अनुसार करीब 80 परिवार अब भी वहां डेरा जमाए हुए हैं.
मैंने वहां करीब दर्जन भर लोगों को धरने पर बैठा पाया. सतीश बताते हैं कि अधिकतर
लोग काम-काज (मुख्य रूप से मजदूरी या छोटी-मोटा काम) करने निकल जाते हैं और देर
शाम लौटते हैं. इन परिवारों की महिलाओं और बच्चों ने आसपास के गांवों में अपने
रिश्तेदारों के यहां शरण ले रखी है. कुछ परिवार गांव लौटे भी हैं तो लाचार होकर.
और प्रशासन यहां भला
अलग कैसे हो सकता है
और
प्रशासन और पुलिस का नजरिया भला यहां अलग कैसे होता. हिसार के पुलिस अधीक्षक शिवास
कविराज से इस संबंध में मुलाकात के लिए उनके पीए से मिलना पड़ा. उनके पीए ने पहले
ही अनऑफिसिअली जो बात बताई वह बिल्कुल महिला विरोधी पुरूष मानसिकता का बयान था. उन्होंने
यह कहते हुए लड़कियों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि दरअसल एक आरोपी जाट
युवक से एक पीड़िता का प्रेम-प्रसंग था और वह अपनी मर्जी से गई थी. बाकी तीन
लड़कियां भी उसके साथ हो ली थीं. जाहिर है एक चाहे तरूण तेजपाल प्रकरण हो या हिसार
जैसे कस्बों का मामला स्त्री की मर्जी की बात कह कर उसे ही कटघरे में खड़ा करने का
रिवाज हमेशा से रहा है. एसपी शिवास कविराज का भी ठीक यही रवैया था, उन्होंने बताया, ''चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा
है. वे बताते हैं कि गांव में लगातार पुलिस गश्त होती है.” दो साल से जारी भगाणा के दलितों के धरने के बारे में पूछने पर भी वे
यही कहते हैं, “बैठे
लोग गांव जाएं तो सही, हम उनके लिए पूरी सुरक्षा का बंदोबस्त
कर देंगे.” लेकिन जिस गश्त और सुरक्षा की बात वे कर रहे हैं वह तो
प्रशासन ने दो साल पहले भी कहा था. फिर ऐसी घटनाएं कैसे जारी हैं. हालिया गैंगरेप
की घटना के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ''मामले
का बहुत ज्यादा राजनीतिकरण किया जा रहा है. हमने 24 घंटे के अंदर तीन आरोपियों और फिर दो दिन बाद ही बाकी दो आरोपियों
को गिरफ्तार कर लिया.” पुलिस ने एक नाबालिग और एक बालिग
किशोरी के साथ रेप की पुष्टि की है. चार किशोरियों का अपहरण और बलात्कार और
दो दिन बाद एफआइआर दर्ज होना पुलिसिया सुरक्षा की बात पर सवाल तो खड़ा करता ही है.
दरअसल
एसपी जिस राजनीतिकरण की बात कर रहे हैं, उसे क्लीयर करते हुए वह अनऑफिशिएली बसपा
की ओर इशारा करते हैं. जाहिर है प्रशासन-सरकार और जाटों को ये बात चुभ रही है कि
आखिर दलितों राजनैतिक जमीन कैसे मुहैया हो रही हैं.
वही
हिसार के डिप्टी कमिश्नर एम.एल कौशिक भी इसी लकीर पर हैं. उन्होंने कहा ''बलात्कार को दलित-उत्पीडऩ से जोडऩा ठीक
नहीं है. हर समुदाय में अपराधी तत्व के लोग होते हैं. पीडि़तों को मुआवजा दिया जा
चुका है.” भगाना के सामाजिक बहिष्कार के मुद्दे
पर उन्होंने कहा '' मैं गांव का दौरा कर चुका हूं. गांव
में बहिष्कार जैसा कुछ नहीं है.”
एक पीड़ित परिवार का घर जहां अब ताला लटका है |
उत्पीड़न की
धर्मस्थली भगाणा में
प्रशासन
ने सब कुछ सामान्य बताया लेकिन हिसार के करीब 20
किमी दूर भगाना गांव में माहौल की तल्खी साफ महसूस की जा सकती है. यहां पहुंचते ही
महिलाओं को गले के नीच तक पूरा घूंघट किए देखा जा सकता है, जो यहां की सामाजिक
रूप-रेखा की अनायास चुगली कर देते हैं. वहीं दलितों और जाटों के बीच यहां बोल-चाल
भी दिखाई नहीं पड़ रहा था. उनके बीच बना फासला साफ महसूस हो रहा था. दलित परिवारों
के धरने प्रदर्शन के खिलाफ जाट तल्ख हैं. यहां मामले का दूसरा पक्ष भी उभर कर
सामने आता है. बलात्कार की शिकार किशोरियों के खिलाफ ये लोग उसी तरह के
स्त्री-विरोधी आरोप लगा रहे हैं जैसा कि खाप पंचायतों का होता है. गांव के फूल
सिंह हों या सूरजमल, दलवीर सिंह या नफे सिंह मैंने दर्जन भर जाटों से बातचीत की और
सभी पीडि़ताओं को ही दोषी ठहराते नजर आए. वहां के जाट फूल सिंह पूछते ही फट पड़ते
हैं, “ वे अपनी मर्जी से गईं थी कोई जबरदस्ती
नहीं ले गया था.” वहीं यह ध्यान दिलाने पर कि दो
किशोरियां तो नाबालिग थीं. लेकिन इसपर भी जाट समुदाय के लोगों का जवाब होता है, ''इससे क्या जी, सब मर्जी थी उनकी.” गांव के जाट सामाजिक बहिष्कार की बात
से भी इंकार करते हैं.
वहीं
अपने ऊपर लगे आरोपों से गांव के सरपंच राकेश बेफिक्र नजर आते हैं. वे पूरी धमक के
साथ कहते हैं, ''लगाने दीजिए आरोप, आरोप से क्या होता है. पुलिस जांच कर
रही है.” वे दावा करते हैं ''हम भी तो मुख्यमंत्री तक जा सकते हैं.” कृष्ण की बात पूछने पर वे कहते हैं, ''हां, मैंने उस समय दो-तीन थप्पड़ा मार दिया था क्योंकि वे खेतों के काम
में लापरवाही बरत रहा था. लेकिन फिर हमारा समझौता हो गया था.” जाहिर है कि उन्हें या यों कहें उनके जाट समुदाय
को किसी प्रकार का डर नहीं है और उन्हें अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है.
सामाजिक
बहिष्कार की बात पूछने पर वे स्वीकार करते हैं, ''हां, जाटों ने अपनी सेफ्टी के लिए ही उस समय
सामूहिक रूप से अपने खेतों में दलितों को काम देने या घास वगैरह ले जाने से मना कर
दिया था. ताकि वे हमारे खेतों में आकर हमारे ही खिलाफ कोई आरोप न लगा दें. लेकिन
अब ऐसा नहीं है.” जाटों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि आखिरी दलित परिवार धरना
देने चले क्यों जाते हैं. एक जाट धर्मवीर सिंह उलाहना देते हैं, ''सरकार उन्हें मुआवजा दे देती है इसी
वजह से वे धरना करते हैं. सरकार ने उनका मन बढ़ाया है.” जाहिर है यहां की फिजाओं में नफरत की बू बरकरार है.
गांव
के दलितों का आरोप भी कायम है. वे थोड़े झिझके या हो सकता है जाटों की डर की वजह
से उनमें झिझक मौजूद हो. पर जैसे-जैसे उन्हें लगा कि उनकी बात सुनने कोई आया है तो
वे सब अपनी पीड़ा बयान करने लगते हैं. 22
वर्षीय दलित सुरेंद्र बताते हैं, ''जाटों
ने हमसे बातचीत, खेतों में काम देना, मंदिरों में जाने देना सबकुछ बंद कर
दिया था जो अब तक कायम है. जो जाट हमसे बता करेगा उस पर 1,100 रू. का जुर्माना लगाने की बात कही गई
है.” इनका घर विवादित सामुदायिक जमीन के सामने ही है. बगल में ही सुरेंद्र
के चाचा का घर है जो 2012 के विवाद के बाद से ही घर छोड़ कर कहीं और रहने चले गए
हैं. प्रशासनिक सुरक्षा की बात पर 21 वर्षीय सुखबीर उपेक्षा से कहते हैं, ''पुलिस मीडिया के आने की की भनक पर ही
गांव आ जाती है वरना कोई सुरक्षा नहीं रहती.”
इस
बार जिन दलित किशोरियों का बलात्कार हुआ है वे उन धानक नामक दलित समुदाय से हैं
जिन्होंने उस समय गांव नहीं छोड़ा था और वहीं रह रहे थे. जाहिर है गांव में रहने
की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. मैं उनके घरों की ओर भी जाता हूं, जो जाटों के घरों
से अलग बसे हुए दलितों के मोहल्ले में है. यहां पीड़ित लड़कियों के घर के बाहर
ताला लटकता नजर आ रहा है.
आखिर
में जाट महिलाओं से बात करने की कोशिश मैंने की तो उन्होंने कह दिया कि जाइए
मर्दों से ही पूछिए. गांव से वापस लौटते हुए मैंने गांव की सीमा पर तैनात दो एएसआइ
से बात की. पूछने पर उन्होंने बताया कि वहां सुरक्षा के लिए पुलिस 24 घंटे तैनात है.
लेकिन जैसा कि पहले एसपी मुझे बता चुके थे कि वहां गश्त करवाई जाती है. जाहिर है
गश्त करवाने का यह मतलब नहीं कि 24 घंटे पुलिस तैनात रहती है.
ताकतवर
समुदायों के लिए हथियार है बलात्कार
डाबड़ा
की पीडि़त किशोरी कहती है,
''जाट दलितों के
प्रतिरोध को कुचलने, उन्हें सबके सीखाने और अपमानित करने
लिए बलात्कार को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि दलित चुपचाप
उनकी बाकत मानते रहें.” और इस
तरह वह बलात्कार को जरूरी तरीके से समझने का नजरिया देती है. यह अनायास भी नहीं है कि एनसीआरबी के मुताबिक पिछले
तीन वर्षों में हरियाणा में दलितों का बलात्कार बढ़ा है.
प्रतिरोध की प्रयोगशाला
वाया दलित राजनीति
जाहिर
है कि जैसे-जैसे दलितों के प्रतिरोध की प्रयोगशाला बनती जा रही है, जाटों में नफरत बढ़ रही है. दूसरी ओर
प्रशासन भी इसे स्थानीय राजनीति के लिए अनावश्यक बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिश
बता रही है.
दरअसल
यही वह मुख्य मुद्दा है जिस सबसे ज्यादा समझने की जरूरत है. हरियाणा की राजनीति
में जाट ही केंद्रीय ताकत हैं. यहां के दोनों प्रमुख दलों का नेतृत्व जाटों के हाथ
में है. हिसार में भी ठीक ऐसा ही है. जबकि अपने उत्पीड़न के खिलाफ दलितों को
गैर-जाट केंद्रीयता वाले दल की जरूरत है. इसी वजह से वे अपनी अलग राजनैतिक जमीन की
कोशिश कर रहे हैं. सपाट तरीके से देखने पर तो बस हमें लगेगा कि यहां हो रहा
उत्पीड़न या जाटों में दलितों के प्रति आक्रमकता बस सामाजिक मुद्दा है. लेकिन नहीं
यह राजैनितक मुद्दा भी है. यहां दलितों की एकजुट राजनैतिक जमीन तैयार करने में
बसपा जुटी हुई है. और इसका ही असर देखने को मिल रहा है. दलितों का इन जगहों पर
आंदोलन इसी दृष्टि से ही हो रहा है, और जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, यह सब बसपा की
जमीन तैयार करने की कोशिश भी है. यह यों ही नहीं था कि एसपी भी इशारों में ही बसपा
को जिम्मेदार ठहरा रहे थे और गांव का सरपंच भी बसपा पर ही आरोप लगा रहा था कि
लड़कियां अपनी मर्जी से जाट युवकों के साथ गई थीं, लेकिन जिस दिन (25 मार्च) को
बसपा की रैली हिसार में हुई, उसके बाद ही लड़कियों और उनके परिजनों को भड़का कर
एफआइआर दर्ज कराई गई और उन्हें दिल्ली ले जाया गया. जाहिर है प्रशासन, सरकार और
जाटों को यह कतई रास नहीं आ रहा है कि दलितों की अपनी कोई मजबूत जमीन तैयार हो.
तंवर के फार्महाउस में मिर्चपुर के दलित |
मिर्चपुर
आंदोलन समेत दलितों के उत्पीडऩ के खिलाफ कई आंदोलनों के अगुआ और इस बार भी
पीडि़तों के दिल्ली तक लाने वाले सर्व समाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष वेदपाल सिंह
तंवर कहते हैं, ''वे मनुष्य को मनुष्य नहीं मानते, अधिकार की बात तो दूर है. यह लड़ाई इसी
अधिकार की है.” 2010 में मिर्चपुर कांड के पीडि़त कई दलित परिवारों ने अब तक इन्हीं के
फॉर्म हाउस पर शरण ले रखी है.
हरियाणा
में आखिर क्या वजह है कि दलितों को उत्पीडऩ बदस्तूर जारी है और वे उपेक्षा के शिकार
है. तंवर इस ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ''दरअसल
हरियाणा की राजनीति में जाटों का ही वर्चस्व है. राजनैतिक नेतृत्व इन्हीं के हाथों
में है. इतना ही नहीं बल्कि राजनैतिक पार्टियां जाटों को किसी भी तरह नाराज नहीं
करना चाहतीं.” यही वजह है कि उनके लिए दलित मायने नहीं रख रहे. इसी बात की ओर ध्यान
मेरा मिर्चपुर के दलितों ने दिलाया. मिर्चपुर में 2010 में सिर्फ इसी वजह
से दलितों के घरों में आग लगा दी गई थी क्योंकि एक दलित के कुत्ते ने जाट को भौंक
दिया था और जाट ने जब कुत्ते के मारना शुरू किया तो दलित ने मना किया था. उसकी
वीभत्सता कैसे कोई भूल सकता है कि एक अपाहिज लड़की अपने बूढ़े पिता के साथ जलाकर
मार दी गई थी. मैं तंवर जी के फॉर्म हाउस में भी गया जहां पलायन के शिकार मिर्चपुर
के दलित अभी तक शरण लिए हुए हैं. एक-एक तंबू में दो-दो तीन-तीन परिवार गुजारा कर
रहे हैं. देख के साफ लगा कि या तो वे तंवर की ओर से ही मुहैया करा दिए काम करते
हैं या फिर बाहर मजदूरी करते हैं. और उनसे बात करने की कोशिश करते हुए मुझे साफ
अहसास हुआ कि वे भी अपना दुखड़ा सुनाते-सुनाते उकता गए हैं. यहां बूढ़ी हो चुकी
मां भी थीं जनिक बेटे को जाटों ने इसलिए मार दिया क्योंकि वह मिर्चपुर की घटना का महत्वपूर्ण
गवाह था. उसकी पथराई आंखें और उदास आवाज सुनकर हम सन्नाटे में आ जाते हैं. वहां के
दलित भी कहते हैं, ''हमें तो चुनाव के समय भी कोई पूछने
नहीं आता, इस बार भी कोई नहीं आया. गांव में भी
हम डर के नहीं जाते जिसकी वजह से इस बार भी इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ हम वोट
देने नहीं गए.” इसी 10 मई को हिसार में लोकसभा का चुनाव
संपन्न हुआ है.
भगाणा में एक जाट की हवेली के जास मकान |
हिसार
और भगाणा के आबादी भी कुछ ऐसा ही बयान करती है. हिसार में दलित आबादी करीब 22 फीसदी है. हालांकि हरियाणा में कुल मिलाकर करीब 19 फीसदी दलित हैं. जाहिर
है दलितों की आबादी कम नहीं है. लेकिन उनके मुकाबले जाट कहीं अधिक हैं. भगाणा इसका
उदाहरण है. यहां जाट आबादी करीब 60 फीसदी है तो दलितों की आबादी करीब 27 फीसदी. जाहिर
है हरियाणा में जाट बहुसंख्यक हैं. इसलिए सरकार और पार्टियों के लिए वे ज्यादा
जरूरी हैं. और राजनैतिक रसूख की वजह से प्रशासन भी उन्हीं के पक्ष में खड़ा रहता
है.
यहां
दलितों के प्रतिरोध में वेदपाल तंवर की बात भी जरूरी हो जाती है. इनके आलीशान मकान
जाने पर आपको अहसास हो जाता है किसी रईस के यहां पहुंच गए हैं. वेदपाल तंवर के
बारे में कहा जाता है कि इन्होंने खनन से काफी पैसा बनाया है. हिसार के आला
प्रशासनिक अधिकारी भी उनके बारे में बताते हैं कि तंवर खनन माफिया रह चुके हैं. यह
यों ही नहीं है कि वे इन आंदोलनों में दलितों न केवल अपने बूते शरण दे पा रहे हैं
बल्कि एकजुट कर रहे हैं. उनका दूसरा पहलू यह भी है कि वे बीजेपी से होते हुए अब
बीएसपी में हैं. इस 2014 के लोकसभा चुनाव में इनको यों ही नहीं भिवानी-महेंद्रगढ़
लोकसभा सीट के उम्मीदवार उतारा था. और मुझे यहीं लगता है कि बीएसपी के लिए दलितों
की जमीन तैयार करना भी की उनकी इस सक्रियता की एक वजह है. बाकी उनके बारे में और
भी किस्से हैं कि जाटों ने उनके बेटे की हत्या कर दी थी. जाहिर है कोई भी वजह हो,
उनकी अपनी राजनैतिक जमीन तैयार करने की कवायद हो, वे गैर-जाट राजनैतिक मोर्चा बनाने के लिए पूरा
जोर लगा रहे हैं, और इसके लिए दलित उनके लिए काफी महत्व रखते हैं. लेकिन जो भी हो,
यह शख्स मिर्चपुर से लेकर भगाणा जैसे तमाम दलित उत्पीड़न के खिलाफ के आंदोलन को
सालों अगुआई कर रहा है, इस जरिए अगर हरियाणा में दलित भी अपनी राजनैतिक जमीन तैयार कर सकें या
फिर राजनैतिक रूप से एकजुट हो सकें तो यह दलितों के अधिकारों की जीत होगी. और
इसलिए हमें तमाम संदेहों के बावजूद उम्मीद करनी चाहिए कि यह दलित आंदोलन हरियाणा
में बदलाव की एक बड़ी वजह बन सकता है.
दिल्ली
के रंग-ढंग में खलल पड़ेगा?
कहते
हैं इंसाफ पाने के लिए दिल्ली तक गुहार या चोट करना जरूरी होता है. स्थानीय
प्रशासन और राज्य सरकार की ओर से लगातार हो रही उपेक्षा से भगाना के बलात्कार
पीडि़त परिवारों ने इस बार भी दिल्ली गुहार लगाई है. वे गांव में वापस नहीं जाना
चाहते. किशोरियों का आरोप है कि जाट युवक अकसर उनके साथ छेडख़ानी और परेशान किया
करते थे. इसी वजह से उन्हें अपनी पढ़ाई भी बंद करनी पड़ी थी. नाबालिग पीडि़ता की
मां कहती हैं, ''हम तो बच्चों को बाहर भी पढ़ाने नहीं
भेज सकते. वे आते-जाते भी उन्हें रोक कर परेशान किया करते हैं. आखिर हम गरीबों की
कौन सुनता है.” पीडि़त उचित मुआवजा, पुर्नवास, और किशोरियों की पूरी शिक्षा की गारंटी
की मांग कर रहे हैं. 27 अप्रैल को जंतर-मंतर से जेएनयू के
छात्रों समेत कई सामाजिक संस्थाओं ने गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के घेराव के लिए
बड़ा प्रदर्शन किया. पीडि़तों की ओर से हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र
सिंह हुड्डा के खिलाफ नारेबाजी से जंतर-मंतर गूंज रहा था. पीडि़तों के
प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात गृहमंत्री से भी कराई गई लेकिन उन्हें कोरे आश्वासनों के
अलावा कुछ न मिला. 29 अप्रैल को आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता
योगेंद्र यादव भी जंतर-मंतर पहुंचे और उन्हें आश्वासन दिया. ये वही योगेंद्र यादव
हैं जो हरियाणा के खाप पंचायतों की प्रशंसा कर चुके हैं. खुद इनके मुखिया अरविंद
केजरीवाल उसी हरियाणा के हैं. इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि पीड़ितों ने
बताया कि योगेंद्र यादव ने ये कहा कि वे मामले को देख-समझ कर बताएंगे. यानी अपने
स्तर के देख-जांच कर बताएंगे. क्या दिल्ली गैंग रेप की घटना के बाद आम आदमी पार्टी
या राजनैतिक दलों को अपनी स्तर से जांच करने की जरूरत पड़ी थी? फिर यहां क्यों पड़ रही है. दरअसल ये
लोग पहले ये जांच-परख लेगें कि पीड़ितों के समर्थन में आने पर उनका कितना
नफा-नुकसान होगा. जाहिर है उनका इरादा क्या है. पीडि़त परिवारों को इस बात का डर
कायम है कि कहीं उनका हाल भी पिछली बार की तरह ना हो जाए, जहां अभी तक इंसाफ बाट जोह रही है.
आखिर दिल्ली अब मौन क्यों है?
लेकिन
आखिर संघर्ष का रूप क्या हो
ऊपर
की तमाम बातों, संघर्षों और स्थितियों को आखिर किस राह की ओर जानी चाहिए. अभी जो
दिल्ली में दलित लड़कियों के इंसाफ के लिए जो आंदोलन चल रहा है, इसमें अगर इन
पीड़िताओं को उचित मुआवजा, बेहतर भविष्य के लिए एजुकेशन की गारंटी और पीड़ित
परिवारों के लिए पुर्नवास की सुविधा मिल जाती है तो क्या संघर्ष की जीत होगी. एक
हद तक तो हां कहा जा सकता है. यह इसलिए भी कि अगर भगाणा के पीड़ितों को इंसाफ
मिलता है तो इससे हरियाणा में रह रहे दलितों को हौसला मिलेगा और इससे वे संघर्ष के
लिए प्रेरित होंगे. संघर्ष की सामाजिक चेतना का विकास होगा. लेकिन नहीं, सिर्फ यही
व्यापक बदलाव या बुनियादी स्तर के बदलाव के लिए जरूरी नहीं है. दरअसल जैसा कि मैं
ऊपर दोहरा चुका हूं कि राजनैतिक चेतना, दलितों की राजनैतिक अपनी खुद की जमीन का यह
मामला है. और यही बनाना लक्ष्य होना चाहिए, जैसा कि बड़े हद तक कांशीराम ने किया
था और यूपी में दलितों की अपनी राजनैतिक जमीन बन चुकी है. ठीक ऐसी ही मजबूत राजनैतिक
जमीन हरियाणा में बननी चाहिए. भारतीय लोकतंत्र के ढांचे ने मुताबिक यही सबसे
उपयुक्त रास्ता भी होगा. राजनैतिक भागीदारी और राजनैतिक ताकत जरूरी है चाहे
स्थानीय राजनीति की भूमिका में या फिर केंद्रीय राजनीति की भूमिका में. हरियाणा में
तभी दलितों की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन होंगे. इसलिए यह संघर्ष केवल इन पीड़ितों
भर का मामला नहीं है.
-सरोज कुमार