(अपने मित्र संदीप भैया के अखबार छोड़ने के बाद)
क्या फर्क पड़ता है
हमारे होने न होने का.
मैं घूर रहा हूं हिंदुस्तान की इस बिल्डिंग को
या फिर वो मुझे घूरने लगा है,
फ्लाईओवर पर गुजरते हुए
मैं देखता हूं इसे
इतराता हुआ.
मालूम नहीं किस-किस को पड़ा है फर्क
आपके होने न होने का,
इस बिल्डिंग को
इस अखबार को
आपके बॉस को
आपके सहकर्मी को
या फिर आपके उस दोस्त को
जो आपको गले लगा कर विदा कर रहा है
मिस करने का दावा करते हुए,
या फिर मुझे,
मेरे दोस्त पता नहीं किस बात पर हंस रहे हैं
क्या उन्हें भी पड़ा है कोई फर्क?
मैं महसूसना चाह रहा हूं फर्क.
फ्लाईओवर पर ही बढ़ने लगता हूं
दूर-दूर तक चमक रहे हैं
बाजार, शोरुम, होर्डिंग्स
लोगों, गाड़ियों की आवाजाही जारी है
रोजाना की तरह,
नीचे पटना जंक्शन पर खड़ी हैं ट्रेनें
पता नहीं कहां-कहां के लिए
आना-जाना जारी है,
दूर चमक रहा है दैनिक जागरण का एक बोर्ड
और कई चीजों की होर्डिंग्स
मैं मुंह फेर लेता हूं.
आगे बढ़ते ही
एक बुजुर्ग फुटपाथ पर नशे में
मोबाईल से बुला रहा है अपने बेटे को
वह इतने नशे में है कि चल नहीं सकता,
“कहां जाना है”
पूछते ही वह भड़क उठा है-
“आप अपना काम करिए”
सामने गुजरता आदमी मुझपर हंसने लगा है
मैं जल्दी से गुजर जाना चाहता हूं,
सामने से चली आ रही हैं दो महिलाएं
एक-दूसरे का हाथ थामे हुए.
मैं उतरने लगा हूं
फ्लाईओवर के दूसरी ओर
दस मिनट बाद
एक किशोर साईकिल पर बैठा लिए जा रहा है
उसी आदमी को जो नशे में है.
सामने टाटा डोकोमो की बड़ी-सी होर्डिंग टंगी है-
दो बातें नहीं...करो दोगुनी बातें
कोई मुस्कुरा रहा है
हर दोस्त जरुरी होता है ?
मैं तलाशने लगा हूं कोई चेहरा
और आगे की सड़क पर अब गहरा अंधेरा है
कुछ कांच के टुकड़े बिखरे पड़े हैं.
आगे हिंदुस्तान अखबार का एक होर्डिंग टंगा
है-
बड़ी-सी बिल्डिंग तैयार करते हुए
एक इंजीनियर मुस्कुरा रहा है
लिखा है- ‘कुछ यूं आसमां चूमेगा
बिहार’
‘बिहार मांगे इंसाफ’.
एक स्कूटी के विज्ञापन में लिखा है-
लड़कों वाली बात.
एक लड़की मुस्कुरा रही है.
एक लड़की मुस्कुरा रही है.
थोड़ी ही दूर आगे बढ़ते ही
पकौड़ियां छानती एक बूढ़ी औरत
पोंछ रही है पसीना
दो मजदूर खड़े अपनी जेब टटोल रहे हैं.
मैं अब एक दोस्त के कमरे में
चबा रहा हूं घी में लिपटी रोटियां,
किस चीज का फर्क पड़ता है हमें
किन्हें फर्क पड़ता है हमारे होने न होने
का...