Thursday 22 March 2012

‘आत्महत्या के बारे में सोच कर’

सोचा है कभी ?
मरने के बारे में,
खुद मौत चुनने वालों के पास
जरूर रहा होगा कोई कारण
या फिर
न रहा होगा जीने का कोई कारण,
कहते हैं आत्महत्या
बुजदिलों का काम है
पर क्या इतनी भी हिम्मत होती है किसी के पास ?
अब कई बार सोच चुका हूँ इस बारे में
मगर मुझमे इतनी भी हिम्मत नहीं.

सोचता हूँ
अब तक जो कुछ भी किया
जिनके लिए भी किया
जिस कारण से भी किया
क्या हो पाया उन चीजों का?
कभी-कभी सबकुछ निरर्थक जान पड़ता है.

अक्सर होता हूँ अकेला
छोड़ भी दिया जाता हूँ अकेला,
उनसे तो और
होना चाहता हूँ जिनके साथ,
सोचता हूँ
दस, बीस या फिर पचास साल बाद भी
यूँ ही रहूँ अकेला
तब सोचूंगा क्यों नहीं किया
कोई कोशिश कोई काम
जो निरर्थक न लगे जीवन,
लेकिन हर बार हार जाता हूँ.

फिर भी
इतनी भी हिम्मत नहीं मुझमें,
या अब भी बची हुई है
कहीं पे कोई उम्मीद,
आखिर उन्होंने क्यों मारा होगा खुद को
जब खत्म हो गए होंगे सारे रास्ते...

-सरोज 

‘डर’ (लघुकथा)

एक विक्षिप्त व्यक्ति के सड़क के बीचोंबीच आ जाने के कारण चौराहे पे जाम लगने लगा था. दोनों ओर से कारों, दुपहियों की चाल अनचाहे धीमे हो रही थी.
“साले! यहीं लोग ट्रैफिक जाम कर देते हैं” एक कार वाला बडबडाया.
“ठोंक के निकल लो, साला खुद हट जायेगा” दूसरे ने सुझाया.
इतने में एक कार तेजी से आई और उसे धक्का मार चलते बनी.
दूसरे दिन, वहीँ चौराहा, वैसी ही गाड़ियाँ. सड़क पर जबरदस्त जाम लगा हुआ था. कारें चींटियों की तरह रेंग रही थीं. “ड्राइवर! जरा बचाकर चलना, उसे धक्का न लगे वरना लोग बवाल कर देंगे” सब अपने-अपने ड्राइवरों को हिदायत दे रहे थे. इतना ही नहीं बल्कि चार-पाँच लोग गाड़ियों से उतर कर उसे बीच सड़क से किनारे लाने का प्रयास कर रहे थे. दरसल सड़क के बीचोंबीच एक गाय आ गई थी.


-सरोज 

Wednesday 21 March 2012

साहेब, गुलाम या गैंगस्टर पर बीबी वहीं की वहीं


तिग्मांशु धूलिया की हाल ही में आई फिल्म 'साहेबबीबी और गैंगस्टरने एक बार फिर साबित किया है कि मुम्बईया फिल्मों में स्त्रियों के चरित्रों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है. स्त्रियों को गुलाम बनाये रखने कि सोच अभी भी हिंदी सिनेमा में मौजूद है. इस जैसी फिल्मों में ऊपर-ऊपर जरुर दीखता है कि स्त्री बोल्ड या आज़ाद हुयी है मगर ध्यान से देखे तो सच कुछ और ही होता है. जिस तरह इस फिल्म में तिग्मांशु ने छोटी रानी का चरित्र गढा है वह गुरुदत्त के 'साहेबबीबी और गुलामसे बुनियादी रूप में कतई अलग नहीं है. वहाँ जिस तरह सामंतवादी सोच वाले पति के लिए छोटी रानी किसी भी हद तक गुज़रती है यहाँ भी छोटी रानी(माही) थोड़ा विचलन के बावजूद साहेब(जिम्मी) को ही कबूल करती है. साहेब दूसरी स्त्री के पास जाता रहता है पर छोटी रानी विछिप्त-सी देखती रहती है. और जब वो ड्राईवर (हुड्डा) से संपर्क बनाती है तो चोरी-छिपे. न तो वह साहेब को छोड़ने कि हिम्मत जुटा पाती है और न ही अपने सम्बन्ध को स्वीकार करने की. छोटी रानी अपने सम्बन्ध चहारदीवारी तक ही मानती है . प्रेमी को स्वीकार करने कई बजाय  गुरुदत्त की छोटी रानी की तरह साहेब के पैरों की धूल ही चुनती हैचाहे साहेब उसे प्यार करे या न करे. उसे भय होता है उसी समाज का जो उसे वैसे का वैसा ही बनाये रखना चाहता है. इस तथाकथित सभ्य समाज के पुराने ढांचे को तोड़ने कई हिमाकत छोटी रानी नहीं कर पाती है. सामानांतर सिनेमा आंदोलन ने स्त्री के इस छवि को तोड़ने की और इश्किया जैसी कुछेक फिल्मों ने उसे आगे बढ़ाने की कोशिश जरुर  की मगर मुख्य धारा की लगभग सभी फिल्मों ने सामंतवादी रुख ही दिखाया. ओमकारा में स्त्री अपने पिता की खिलाफत कर प्रेमी को जरुर पाती है पर प्रेमी द्वारा उसी सामंतवादी सोच का शिकार होती है. देव-डी की उन्मुक्त दिखनेवाली बोल्ड पारो भी ऐसे ही हार जाती है. गुलाल या राजनीति की स्त्रियाँ  मर्दों के खेल का माध्यम बनती हैं.सात खून माफ की स्त्री पतियों से छुटकारा पाने के बावजूद ईश्वर की शरण में जाती हैआखिर उसे ईश्वर की शरण में क्यों जाना पड़े ? तनु वेड्स मनु की आज़ाद पंछी आखिर में उसी आदर्श शादी के पिंजरे में लौटती है जिससे वो छुटकारा पाना चाहती थी. मेरे ब्रदर की दुल्हन में दुल्हन अपने प्रेमी को पाने के लिए उन्ही हथकंडों का इस्तेमाल करती है जिसे ये समाज मान्यता देता है. वह खुल्लमखुल्ला प्यार नही पाती बल्कि उन्ही ढांचों को अपनाती है जो उन्हें खुल्लमखुल्ला प्यार नही करने देते हैं. फिल्मों में स्त्रियों को छोटे कपड़े आज़ादी के नाम पर जरुर  पहनाये जा रहे हैं मगर ये सब मर्दों का ही खेल है. फिल्म हो या समाज स्त्रियों को वस्तु की तरह ही ट्रीट किया जा रहा है जिसे बदला जाना चाहिए. फिल्मों में स्त्री छोटे कपड़े पहने या बड़े ये जरुरी नहीं बल्कि इनके चरित्रों में बुनियादी परिवर्तन करने की जरुरत है. कब स्त्री फिल्मों में अपने पूरी तरह से स्वतंत्र अस्तित्व को देख पायेगीकुलमिलाकर आजकल कुछ  फिल्मों में स्त्री को ऊपर से स्वतंत्र या बोल्ड जरुर दिखाया जा रहा हो मगर सच्चाई कुछ और ही है.

मुसलमानों के खिलाफ भारतीय मीडिया...


-सरोज कुमार  

हाल ही में प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू के द्वारा मीडिया-नियमन संबंधी बयान पर तो खूब हाय-तौबा मची हुई है पर मीडिया के सांप्रदायिक चेहरे कि ओर उनके इशारे पर चुप्पी छाई हुई है. काटजू साहब का यह कहना कि मीडिया लोगों को बाँटने का काम करता है, कोई नई बात नहीं है. जब भी कहीं बम-विस्फोट होता है टीवी चैनल कुछ ही घंटों के भीतर बिना सोचे-समझे मुस्लिम संगठनों का नाम लेना शुरू कर देते हैं. दूसरे ही दिन समाचार पत्रों में भी इसी तरह से रिपोर्टिंग होती है. मीडिया का यह पूर्वाग्रह कोई नया नहीं है. इसने अधिकतर बार अपना यही चेहरा दिखाया है. चाहे वह अयोध्या (1990-92) की रिपोर्टिंग, बाबरी-कांड हो या फिर आज होनेवाले किसी भी विस्फोट कि रिपोर्टिंग. जबकि मालेगांव, मक्का और इशरत जहां जैसे केसों में एकदम उल्टी बातें सामने आ चुकी हैं. फिर भी मीडिया इससे कुछ सीख लेता नहीं दीखता. चाहे-अनचाहे मीडिया द्वारा मुसलमानों और मुस्लिम धर्म कि ऐसी छवि पेश करने कि कोशिश बदस्तूर जारी है. आम जनमानस में इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.


अभी हाल ही में 7 सितम्बर 2011 को दिल्ली-हाईकोर्ट के बाहर हुए विस्फोट के बाद एक ईमेल के आधार पर इंडियन मुजाहिद्दीन कि संलिप्तता की बात कही गयी. समाचारपत्रों में भी ईमेल का जिक्र करते हुए इंडियन मुजाहिद्दीन का नाम लिया गया. जनसत्ता (9 सितम्बर,नई दिल्ली) ने खबर छापा ‘इंडियन मुजाहिद्दीन के छोटू ने ली धमाके की जिम्मेदारी’. इसी अखबार में 10 सितम्बर को खबर छपी- ‘इंडियन मुजाहिद्दीन के ताज़ा धमकी भरे ईमेल पुलिस के लिए चुनौती’. इसमें कहा गया कि यह चुनौती इंडियन मुजाहिद्दीन का छोटू है. हूजी के अलावा ईमेल भेजनेवालों में एक इंडियन मुजाहिद्दीन है. खबर के आखिर में इंडियन मुजाहिद्दीन कि संलिप्तता की बात कहते हुए पत्र लिखता है- ‘लेकिन इस बार इस संगठन ने विस्फोट का अपना तरीका बदला है’. वैसे पी.चिदंबरम का बयान भी है कि यह कोई नौसिखिया भी हो सकता है. जांच के बाद पता चला कि इस विस्फोट कि जिम्मेदारी लेते हुए खुद को इंडियन मुजाहिद्दीन का सदस्य अली सईद अल हूरी बताने वाला अहमदाबाद का कोई मनु ओझा था. काटजू साहब ने इसी ओर इशारा करते हुए कहा है कि ऐसे ईमेल या एसएमएस कोई भी ऐसे बुरे इरादों वाला आदमी भेज सकता है जिसका मकसद सांप्रदायिक नफरत फैलाना हो. जबकि मीडिया इन्हें और प्रसारित करती है. ऐसे मौकों पर ऐसे सन्देश देने कि कोशिश होती है मानो सभी मुसलमान आतंकी हैं.


कुछ खास जगहों को भी आतंक का पर्याय घोषित किया जाने लगता है. सितम्बर 2011 के जनसत्ता में ही पेज-9 पे खबर प्रकाशित हुई- आतंकवादियों की शरणस्थली बन गया पश्चिमी उत्तरप्रदेश.’ खबर के संवाददाता लिखते हैं- ‘पश्चिमी उत्तरप्रदेश आतंकवाद से जुड़े लोगों का मज़बूत व महफूज़ पनाहगार बना हुआ है.’ बड़े दिलचस्प तरीके से वह आगे लिखते हैं- ‘पश्चिम के मिली-जुली आबादी वाले शहरों व देहात में अगर सघन चेकिंग अभियान चलाया जाए तो हथियारों के जखीरे के साथ ही आतंकवादी संगठन से जुड़े लोग भी पुलिस कि गिरफ्त में होंगे.’ मानो उस संवाददाता की आँखों के सामने सबकुछ हो. ऐसी ही कोशिश आजमगढ़ को लेकर होती आई है. ऐसी खबर प्रचारित की जाती है जैसे इन जगहों पे रह रहे सारे लोग आतंकवादी हैं या उनका समर्थन करते हैं. 


इशरत जहां के मुठभेड़ को भी विशेष जांच दल ने फर्जी करार दिया और गुजरात हाईकोर्ट ने भी इससे सहमति ज़ाहिर की है. मगर 15 जून 2004 को जब पुलिस ने फर्जी एन्काउन्टर किया  तो मीडिया ने भी बिना देर किये उसकी हाँ में हाँ मिलाया था. दूसरे ही दिन 16 जून को समाचार पत्रों में मुख्य पृष्ठ पर इसे पुलिस की सफलता के तौर पर पेश किया गया. नवभारत टाईम्स (नई दिल्ली) का शीर्षक था- ‘मोदी को मारने आये चार फिदायीन मुठभेड़ में ढेर’. इसी खबर में पुलिस की बात को ही जगह दी गयी कि इशरत जहां पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आईएसआई से प्रशिक्षित थी, चारो आतंकवादी लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे और दंगों का बदला लेने आये थे. मीडिया ने सवाल उठाना तो दूर पुलिस की बात को ज्यों का त्यों कबूल कर लिया. बाद में जब मीडिया के बाहर से आवाज़ उठनी शुरू हुई तो मीडिया ने कुछ ध्यान दिया और फिर मारे गए लोगों के परिजनों की बातों को थोड़ी जगह दी. मगर फिर भी पुलिस कि बातों को ज्यादा प्रकाशित किया गया. हिन्दुवादी संगठनों की बातों को भी इस प्रकार पेश किया गया जैसे उनकी आवाज़ सबकी आवाज़ हो. 20 जून को (नभाटा, दिल्ली) में खबर छपी- ‘इशरत के परिवार को आर्थिक सहायता का ठाणे में विरोध.’ मजबूरन एनसीपी नेता वसंत डावखरे को मदद के लिए दिया चेक वापस लेना पड़ा और 21 जून को इसी में ‘एनसीपी नेता को वापस लेना पड़ा इशरत के परिवार को दिया चेक’ शीर्षक से खबर छपी. 


मीडिया के इस पूर्वाग्रह की सज़ा मुसलमानों को भुगतनी पड़ती है. सुरक्षा जाँच एजेंसियां और पुलिस तो अपनी नाकामी छुपाने के लिए हड़बड़ी में इसी पूर्वाग्रह से काम करती हैं. मीडिया इस पे सवाल खड़े करने कि बजाय खुद भी शामिल हो जाता है. मालेगांव विस्फोट (8 सितम्बर 2006) के मामले में भी यही पूर्वाग्रह देखने को मिलता है. जिस तरह पुलिस और जांच एजेंसियों ने मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया और मीडिया ने भी ऐसी ही छवि गढ़ी. पर बाद में इस विस्फोट में हिंदू-संगठनों का हाथ सामने आया. मीडिया इस्लामिक आतंकवाद की जो छवि गढ़ता आया, उसने कई बेगुनाहों को जेल पहुँचाया है. इस्लामिक आतंकवाद के पूर्वाग्रह ने कई मुस्लिम युवकों को हिंदू कट्टरपंथियों की करनी का फल भोगने पर मजबूर कर दिया. मालेगांव विस्फोट के सिलसिले में 11 सितम्बर को खबर छपी- ‘मालेगांव-मुंबई में एक ही गुट?’ (नभाटा, नई दिल्ली). इस खबर में पुलिस के हवाले से बताया गया कि 11 जुलाई के मुंबई के लोकल ट्रेनों में हुए धमाकों और मालेगांव के धमाके में एक ही गुट का हाथ हो सकता है. यानि मालेगांव में भी मुस्लिम संगठनों के हाथ होने कि बात कही जा रही थी. इसी अंक में मुंबई हमले के आरोपी अंसारी के घर से आरडीएक्स की बरामदी की खबर भी थी. मतलब साफ़ था कि मुस्लिम संगठनों कि तरफ ही सबकी नज़र थी. वही पूर्वाग्रह काम कर रहा था. 10 सितम्बर के इसी अखबार में एक और खबर आई थी- ‘मुसलमानों ने किया पाक विरोधी प्रदर्शन.’ इसमें एक मुसलिम व्यक्ति का का बयान कोट किया गया था कि इन धमाकों में आईएसआई का हाथ है.


लेकिन सबसे दिलचस्प खबर 14 सितम्बर (नभाटा,नई दिल्ली) को छपी. ‘आतंकवाद को टक्कर देगी वीएचपी’ शीर्षक से आई इस खबर में बताया गया कि विश्व हिंदू परिषद् अब जिहादी आतंकवाद के मुद्दे पर अभियान चलाएगी. यह कार्यक्रम तीन चरणों में चलाया जायेगा, जिसमें जिहादी आतंकवाद से निपटने के लिए आम जनता को ट्रेनिंग देना भी शामिल है. इस पूरी खबर को देख के लगता है मानो विहिप के मुखपत्र कि खबर हो. यह खबर अयोध्या 1990-92 के रिपोर्टिंग कि याद दिलाती है. आतंकवाद को टक्कर विहिप देगी? सरकार या प्रशासन फिर क्या करेंगे? विहिप के महासचिव के बयान की तरह सिर्फ इसे छापा जाता तो कोई बात नहीं थी. पर शीर्षक से ही क्या मतलब निकलता है- ‘आतंकवाद को टक्कर देगी वीएचपी’. विहिप के महासचिव का यह कथन भी देखा जाना चाहिए- जब दोनों कौमों के लोग इन आतंकवादियों के शिकार होंगे, तभी देश का राजनीतिक ध्रुवीकरण होगा.


मालेगांव धमाके (2006) की तरह ही हैदराबाद के मक्का-मस्जिद (2007), समझौता एक्सप्रेस (2007), अजमेर (2007) और फिर दुबारा मालेगांव (2008) धमाकों में भी इसी तरह का पूर्वाग्रह दिखाई देता है, जिसकी कीमत बेगुनाहों को चुकानी पड़ी. समझौता एक्सप्रेस (18 फ़रवरी,2007) धमाके के बाद पुलिस ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के लोगों को शामिल होने कि संभावना जाहिर की. समाचारपत्रों ने भी इसे प्रमुखता से छापा. पुलिस का इशारा पश्चिमी यूपी के मुस्लिम युवकों की ओर था. मीडिया ने भी पुलिस की सोच का ही अनुसरण किया. समझौता एक्सप्रेस धमाके के बाद 20 फ़रवरी को (नभाटा,नई दिल्ली) में खबर छपी- ‘पुलिस को शक देशी आतंकवादियों पर’. पश्चिमी यूपी के आतंकवादी संगठन के हाथ होने की संभावना जताई गयी. 22 फ़रवरी को इसी पत्र में ‘धमाकों के अहम सुराग हाथ लगे’ शीर्षक से खबर आई और पश्चिमी यूपी में छापेमारी की बात कही गयी. इसी अंक में एक और खबर थी- ‘अब अफसरों को ध्यान आया धमकी भरा पत्र’. इस खबर में एक पत्र के जिक्र के साथ यह कहा गया कि पुलिस तय मान रही है कि यह वारदात दिल्ली या पश्चिमी यूपी में रहनेवाले स्थानीय लोगों ने किया है. आशंका है कि ये लोग सीमापार के आतंकवादी संगठन के स्लीपर सेल के मेंबर हों.  


पुलिस तो पूर्वाग्रह के साथ काम कर ही रही थी, मीडिया भी उसके साथ बहा चला जा रहा था. इन सारी घटनाओं में मीडिया ने जैसी भूमिका अदा की वह इसके पूर्वाग्रह कि ओर ही इशारा करता है. पुलिस तो नाकाम रही ही और इसे छिपाने के लिए ताबड़तोड़ मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया. बाद में जब महाराष्ट्र एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे ने मालेगांव धमाके (2008) के पीछे पहली बार किसी हिन्दुवादी आतंकी नेटवर्क के होने का खुलासा किया, तब जाकर इन घटनाओं की असलियत सामने आने लगी. बाद में इन सभी घटनाओं में हिंदू-संगठनों कि भूमिका उजागर हुई. 2010 में असीमानंद के इकबालिया बयान से चीजें और साफ़ हो गयीं. सबको मालूम हो गया कि इन धमाकों के आरोप में जो कई मुसलमान पकड़े गए दरसल वो बेकसूर थे. ये भी साफ़ हुआ कि किस तरह हमारी जांच एजेंसियां और पुलिस पक्षपातपूर्ण तरीके से अपना काम करती हैं और मीडिया भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर एकतरफा रिपोर्टिंग करती है. मक्का मस्जिद धमाके के बाद दो दर्ज़न मुस्लिम युवकों को पुलिस ने गिरफ्तार किया, यातनाये दीं और फिर 6-7 महीने बाद छोड़ दिया. ऐसे ही एक लंबे समय के बाद मालेगांव (2006) के आरोपी मुस्लिम युवकों को भी अब जाकर जमानत मिल गई है. लेकिन इस पूर्वाग्रह की कीमत जो इन युवकों को भुगतनी पड़ी, यंत्रणायें सहनी पड़ी, घर-परिवार को बदनामी सहनी पड़ी, परेशानी हुई. यहाँ तक कि पुरे समुदाय को कटघरे में खड़ा करने कि कोशिश की गयी, इसकी कीमत कौन चुकायेगा? है कोई जवाब इन जांच एजेंसियों, पुलिस, सरकार या मीडिया के पास? 


मीडिया का यह पूर्वाग्रह कोई नया नहीं है. मीडिया का ऐसा सांप्रदायिक चेहरा अयोध्या (1990-92) की रिपोर्टिंग में और भयंकर रूप में सामने आया था. मीडिया ने जिस तरह की एकतरफा और पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग की थी उसकी बार-बार चर्चा होनी चाहिए. मीडिया ने किस तरह बाबरी मस्जिद प्रकरण में हिन्दुवादी संगठनों के प्रचारक की भूमिका निभाई थी. उनके विचारों को व्यापक रूप में तरजीह दिया था और उनके पक्ष में माहौल बनाया था. तथ्यों को नज़रंदाज़ किया था. मुस्लिम-विरोधी ख़बरें छापी थी. अफवाहों को वरीयता दी थी और सांप्रदायिक शक्तियों को फायदा पहुँचाया था. प्रेस-आयोग ने भी समाचारपत्रों को इस मामले में दोषी पाया है. ‘टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट में भी इसका जिक्र है. मीडिया ने अपनी निष्पक्षता ताक पे रख दिया था. मीडिया के गैर जिम्मेदाराना बर्ताव ने स्थिति को विस्फोटक बनने में और मदद किया. अपनी ऐसी रिपोर्टिंग से पड़नेवाले प्रभाव के प्रति वह लापरवाह रहा. अफवाहों के फैलने के कारण दंगों में भी बढ़ोतरी हुई. अयोध्या-विवाद कि रिपोर्टिंग करने के लिए सभी पत्रों ने अपने पृष्ठों कि संख्या बढ़ा दी थी. इसी से संबंधित ख़बरें प्रमुखता से छाई रहीं. मुख्य-पृष्ठ से ले कर अन्य पृष्ठ भी भरे रहते.


इस दरम्यान मीडिया ने सांप्रदायिक शक्तियों के प्रचारक की भूमिका निभाई. हिन्दुवादी संगठनों विश्व हिंदू परिषद्  और भाजपा जैसी पार्टियों को इसने खुलकर जगह दी थी. इनकी ख़बरें या इनके नेताओं के बयान प्रमुखता से छापे जाते रहे. ऐसा लगता है जैसे मीडिया इनका मुखपत्र बन गया हो, और इनके प्रचार का जिम्मा खुद ले लिया हो. इसके विपरीत मुस्लिम संगठनों या फिर इनके विरोध में उठनेवाली खबरों को नहीं छापा गया या बहुत कम जगह दी गयी. प्रशासन और सरकार को भी लाचार दिखाया गया. 

हिंदू-संगठनों के कार्यक्रमों की हर खबर प्रकाशित की जाती. कारसेवा कब, कैसे, कहाँ होगा सबकी जानकारी दी जाती. विहिप और भाजपा के आगे की योजना भी बताई जाती. इनसे संबंधित ख़बरें भरी रहतीं. 29 नवंबर 1992 को मुख्य-पृष्ठ पर खबर छपी- ‘कारसेवा एक्शन प्लान पर अमल शुरू’ (नभाटा, नई दिल्ली). इसी अंक में भाजपा, नई दिल्ली, की योजना बतायी गयी -‘कारसेवकों का पहला जत्था कल रवाना होगा’. इस तरह संघ और भाजपा की ख़बरें आईं. 30 नवंबर को इसी पत्र में दिल्ली की ही खबर छपी- ‘मंदिर निर्माण के लिए जनसंपर्क अभियान’. इसमें भाजपा नेताओं के अपील करनेवाले उत्तेज़क बयान छपे. ऐसी ही ख़बरें लगातार छापी जाती रहीं. इसी पत्र में दिसंबर को ‘मार्गदर्शक मंडल कारसेवा का स्वरूप तय करेगा’ शीर्षक से मुख्य-खबर बनी. ‘कारसेवा के लिए मंत्री ने इस्तीफा दिया’ जैसी खबर भी मुख्य-पृष्ठ पे छपी. जबकि केन्द्र सरकार और प्रशासन की बात को कम फोकस किया गया. ऐसी नाज़ुक स्थिति में भी सरकार न संभली और मीडिया भी सब सामान्य होने की बात को तरजीह देती रही. 2 दिसंबर को पर्यवेक्षक द्वारा सबकुछ सामान्य बताये जाने की बात आई- ‘अयोध्या में कोई असामान्य गतिविधि नहीं’. 3 दिसंबर को इसी पत्र के मुख्य-पृष्ठ पर आडवाणी का बयान भी प्रमुखता से छापा गया और कारसेवकों के जोश का उल्लेख किया गया. खबरें थीं- ‘कारसेवकों के बीच जोशीले भाषणों का दौर’, ‘मंदिर निर्माण में केंद्र ही बाधा-आडवाणी’, ‘अयोध्या में निर्माण-पूर्व की कारसेवा होगी’, ‘जनता दल के हजारों कार्यकर्त्ता अयोध्या जाएँगे’. 5 दिसंबर को भी ऐसी ही ख़बरों की भरमार रही- ‘फैसला वही होगा जो संघ परिवार चाहेगा’, ‘कोर्ट जो भी फैसला दे, मंदिर वहीं बनेगा- आडवाणी’. ‘कारसेवक खाली लौटने को तैयार नहीं’ जैसी भड़काऊ खबरें छपीं. तात्पर्य यह है कि हिन्दुवादी संगठनों की ख़बरों और उनके नेताओं को ज्यादा स्पेस दिया गया. जबकि मुस्लिम संगठनों और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की खबरों को कम जगह दी गयी. इसके अलावा भ्रमित करने वाली खबरें भी प्रकाशित होती रहीं जैसे- 9 दिसन्बर की ये खबर छपी-‘ढांचे से मंदिर के अवशेष मिलने का दावा’.

ये तो रही सिर्फ नवभारत टाइम्स की ख़बरें. सभी प्रमुख समाचारपत्रों ने भी  इसी तरह के पूर्वाग्रह दिखाए थे. अमर उजाला, दैनिक जागरण, जनसत्ता से लेकर सभी हिंदी के पत्रों सहित अंग्रेजी के पत्रों ने भी ऐसी ही रिपोर्टिंग की थी. 
मेरठ से प्रकाशित अमर-उजाला ख़बरों की प्रस्तुति के मामले में साम्प्रदायिक था. पाठकों के ऐसे पत्र ज्यादा छापे गए जो आक्रामक हिंदू-दृष्टिकोण को व्यक्त करते थे.(1)
दैनिक जागरण (आगरा) का सम्पादकीय और ख़बरें दोनों साम्प्रदायिक थे. प्रेस-आयोग ने भी इस पत्र को दोषी पाया है. इस पत्र ने कारसेवक के लिए ‘रामभक्त’ कहा, उन्हें ‘शहीद’ बताया. ‘रामभक्तों का नरसंहार’, ‘रामनगरी में सुरक्षा बालों द्वारा किये गए नरसंहार’, ‘रामनगरी के मंदिरों में जमा एक लाख रामभक्त कारसेवा पुन: शुरू करने के लिए बलिदान को तैयार’ जैसे जुमले प्रयोग किये.(2)
पाठकों की अभिव्यक्ति की आड़ में भी कई पत्रों ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया. स्टेट्समैन में 4 नवंबर को एक पत्र छापा जिसमें इस्लाम को असहिष्णु धर्म और हिंदुओं को सहनशील बताया गया. 22 अक्टूबर 1990 के अंक में छपे पत्र में कहा गया कि पाकिस्तान बन जाने के बाद अब भारत हिंदुओं का है.(3)
कुछ पत्रों ने भाषा का भी सांप्रदायिक प्रयोग किया. जनसत्ता (दिल्ली) ने 3 नवंबर 1990 को मुख्य पृष्ठ पर छः कॉलम की खबर छापी. लिखा था- ‘अयोध्या की सड़कें, मंदिर और छावनियाँ आज कारसेवकों के खून से रंग गईं. अर्द्धसैनिक बलों कि फायरिंग से अनगिनत लोग मरे और बहुत सारे घायल हुए’. यानि जो घायल हुए, उनका तो कुछ अंदाजा लगाया जा सका-‘बहुत सारे’, लेकिन मरनेवाले उससे भी ज्यादा थे जिन्हें गिना ही नहीं जा सकता, अनगिनत थे.(4) इसी तरह से समाचार पत्रों ने अफवाहों को फैलाया, मरनेवालों कि संख्या गलत बताई. जिससे स्थिति और विस्फोटक होती चली गयी. इसने दंगो को भडकाने का काम किया.
27 अक्टूबर के जनसत्ता में निजी संवाददाता कि एक रिपोर्ट छपी जिसमें लिखा था- ‘भारत के प्रतिनिधि राम और हमलावर बाबर के समर्थकों के बीच संघर्ष लंबा चलेगा’.(5)
अंग्रेजी के समाचारपत्रों ने भी ऐसी ही रिपोर्टिंग की. 21 अक्टूबर 1990 के हिंदुस्तान टाइम्स में निजी संवाददाता की रिपोर्ट का शीर्षक है- ‘राम टेम्पल फर्वर इन गुजरात’ जिसमें लिखा है- ‘एक अंतर्निहित भावना कि मंदिर वहीं बनना चाहिए जहाँ राम का जन्म हुआ था. यह भावना न सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवारों एवं लोगों में बल्कि वरिष्ठ अधिकारियों, उद्योगपतियों एवं अन्य बुद्धिजीवियों में भी देखी गयी’.(6) जबकि यह सही नहीं था. हिंदुओं में भी विरोध हो रहा था.
25 अक्टूबर को इसी पत्र में एक खबर छपी- ‘इंडियन अब्रोड बैक कारसेवा.’ इस शीर्षक से यह आभास मिलता है कि सभी आप्रवासी भारतीय ऐसा चाहते हैं, जबकि वास्विकता यह नहीं थी.(7)

इस तरह से अयोध्या (1990-92) की मीडिया रिपोर्टिंग साम्प्रदायिकता का बड़ा उदाहरण है. मीडिया ने जिस तरह पूर्वाग्रह से रिपोर्टिंग की थी और इसके भयानक परिणाम सामने आये थे, इसे सबक के तौर पर याद किया जाना चाहिए. पर लगता है मीडिया अपने साम्प्रदायिक चेहरे को छुपाने कि पूरी कोशिश कर रहा है. वह मीडिया-नियंत्रण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर तो खूब मुखर है पर इस मुद्दे पर बोलने तक से परहेज कर रहा है. आखिर पिछले वर्षों में जिस तरह मीडिया ने इस्लाम या मुसलमानों को आतंक का पर्याय दिखाने की कोशिश की है, उसका जवाब तो माँगा ही जाना चाहिए. सैंकडों बेगुनाह मुस्लिम युवकों को यंत्रणायें मिलीं, एक पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश हुई. क्या इसका जवाब है किसी के पास? आखिर मीडिया और सरकार चुप क्यों है? सिर्फ भुक्तभोगियों को ही नहीं पूरे समाज को जवाब चाहिए.