Monday 3 September 2012

शहर के दोस्त के नाम पत्र

-अनुज लुगुन

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं
बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं
अभ्रक और कोयला तो
थोक और खुदरा दोनों भावों से
मण्डियों में रोज सजाए जाते हैं
यहां बड़े-बड़े बांध भी
फूल की तरह खिलते हैं
इन्हें बेचने के लिए
सैनिकों के स्कूल खुले हैं,
शहर के मेरे दोस्त
ये बेमौसम के फूल हैं
इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती
अपने जूड़े के गजरे
मेरी माँ नहीं बना सकती
मेरे लिए सुकटी या दाल
हमारे यहां इससे कोई त्योहार नहीं मनाया जाता,
यहां खुले स्कूल बारह खड़ी की जगह
बारह तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं
बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है
मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता
यहां से सबका रुख
शहर की ओर कर दिया गया है
कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब खबर फैल रही है कि
मेरा गांव भी यहां से जाने वाला है,
शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें
तो उनका ख्याल जरुर रखना
यहां से जाते हुए
उनकी आंखों में मैंने नमी देखी थी
और हां,
उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता,
मेरे दोस्त
उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा लेता हूं।

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